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अ॒ग्निरी॑शे बृह॒तो अ॑ध्व॒रस्या॒ग्निर्विश्व॑स्य ह॒विषः॑ कृ॒तस्य॑। क्रतुं॒ ह्य॑स्य॒ वस॑वो जु॒षन्ताथा॑ दे॒वा द॑धिरे हव्य॒वाह॑म् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnir īśe bṛhato adhvarasyāgnir viśvasya haviṣaḥ kṛtasya | kratuṁ hy asya vasavo juṣantāthā devā dadhire havyavāham ||

पद पाठ

अ॒ग्निः। ई॒शे॒। बृ॒ह॒तः। अ॒ध्व॒रस्य॑। अ॒ग्निः। विश्व॑स्य। ह॒विषः॑। कृ॒तस्य॑। क्रतु॑म्। हि। अ॒स्य॒। वस॑वः। जु॒षन्त॑। अथ॑। दे॒वाः। द॒धि॒रे॒। ह॒व्य॒ऽवाह॑म् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:11» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:14» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

किसकी विद्या से अभीष्ट प्राप्त करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) विद्युत् अग्नि (बृहतः) बड़े (अध्वरस्य) रक्षा योग्य व्यवहार के करने को (ईशे) समर्थ है (अग्निः) अग्नि (कृतस्य) शुद्ध (विश्वस्य) सब (हविषः) सङ्ग करने योग्य व्यवहार के लिये समर्थ है (अस्य) इस अग्नि के सङ्ग से जो (वसवः) चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य करनेवाले प्रथम कक्षा (देवाः) विद्वान् जन (क्रतुम्) बुद्धि का (हि) ही (जुषन्त) सेवन करते हैं (अथा) इसके अनन्तर (हव्यवाहम्) ग्रहण करने योग्य वस्तुओं को प्राप्त करनेवाले अग्नि को (दधिरे) धारण करते हैं, वे ही जगत् में पूज्य होते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो विद्युत् बड़े-बड़े कार्य्यों को सिद्ध करती, जिसके सम्बन्ध से योगाभ्यास कर के मनुष्य बुद्धि को प्राप्त होता, उसी अग्नि का सब लोग युक्ति से सेवन करें ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

कस्य विद्ययाऽभीष्टं प्राप्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

अग्निर्बृहतोऽध्वरस्येशे योऽग्निः कृतस्य विश्वस्य हविष ईशेऽस्य हि सङ्गेन ये वसवो देवाः क्रतुं हि जुषन्ताऽथा हव्यवाहं दधिरे ते हि जगत्पूज्या जायन्ते ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निः) विद्युत् (ईशे) ईष्टे (बृहतः) महतः (अध्वरस्य) अहिंसनीयस्य व्यवहारस्य (अग्निः) (विश्वस्य) समग्रस्य (हविषः) सङ्गन्तुमर्हस्य (कृतस्य) शुद्धस्य (क्रतुम्) प्रज्ञाम् (हि) खलु (अस्य) (वसवः) (जुषन्त) सेवन्ते (अथा) अनन्तरम्। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (देवाः) विद्वांसः (दधिरे) दधति। (हव्यवाहम्) यो हव्यान्यादातुमर्हाणि वहति प्राप्नोति ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! या विद्युन्महान्ति कार्याणि साध्नोति यस्य सकाशाद्योगाभ्यासेन प्रज्ञां प्राप्नोति तमेवाग्निं सर्वे युक्त्या परिचरन्तु ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जी विद्युत मोठमोठ्या कार्यांना सिद्ध करते, जिच्या साह्याने योगाभ्यास करून माणूस बुद्धी प्राप्त करतो त्याच अग्नीचे सर्व लोकांनी युक्तीने सेवन करावे. ॥ ४ ॥